Thursday, September 6, 2012

ये हैं हिन्दी की शान बढ़ाने वाले विदेशी विद्वान


डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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राजनांदगांव. मो. 9301054300
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केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक रहे प्रतिष्ठित लेखक व चिन्तक प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने विशेष अध्ययन के निष्कर्ष में ठीक ही कहा है कि अंग्रेजों के शासनकाल में बहुत से विदेशियों ने निष्ठापूर्वक हिन्दी सीखी और अनेक ग्रंथों का लेखन किया। उनके अध्ययन आज के भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण एवं पद्धति के अनुरूप भले ही न हों किन्तु हिन्दी भाषा के अध्ययन की दृष्टि से उनका ऐतिहासिक महत्व है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता.

वास्तव में अंग्रेजों के शासनकाल में भारत में केवल ब्रिटिश नागरिक ही नहीं आए; हालैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, रूस एवं अमेरिका आदि देशों के नागरिक भी आए। आगत विदेशी पादरियों, कर्मचारियों, प्रशासकों में से बहुत से विदेशियों ने श्रम एवं निष्ठापूर्वक हिन्दी सीखी तथा हिन्दी सीखकर हिन्दी की पाठ्य पुस्तकों, हिन्दी के व्याकरणों एवं कोशों का निर्माण किया। उनके अध्ययन आज के भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण एवं पद्धति के अनुरूप भले ही न हों किन्तु हिन्दी भाषा के वाड्.मीमांसापरक अध्ययन की दृष्टि से उनका ऐतिहासिक महत्व बहुत अधिक है। इन विदेशी विद्वानों में डॉ0 हार्नले, डॉ0 ग्रियर्सन तथा डॉ0 टर्नर जैसे प्रख्यात एवं मेधावी भाषाविद् भी हैं। इनके कार्यों से न केवल हिन्दी भाषा का विकास हुआ अपितु भारतीय आर्यभाषाओं की अध्ययन -परम्परा का मार्ग भी प्रशस्त हुआ।

भारत विद्या के क्षेत्र में कार्य करने वाले विदेशी विद्वानों की संख्या शताधिक है, जिसकी जानकारी हिन्दी के विद्यार्थियों एवं हिन्दी सेवी रचनाकारों को भी हो इस दृष्टि से यहाँ चंद विदेशी हिन्दी के विद्वानों के योगदान की चर्चा की जा रही है.

जान जेशुआ केटलेर  - डच भाषी केटलेर व्यापार के लिए सूरत शहर में आए। व्यापार के लिए इन्हें सूरत से दिल्ली, आगरा और लाहौर आना पड़ता था। भारत आने के बाद इन्होंने हिन्दी सीखी तथा अपने देश के लोगों के लिए डच भाषा में हिन्दुस्तानी भाषा का व्याकरण लिखा। इस डच मूल की नकल इसाक फान दर हूफ नामक हॉलैण्डवासी ने सन् 1698 ईसवी में की। इसका अनुवाद दावीद मिल ने लैटिन भाषा में किया। हॉलैण्ड के लाइडन नगर से लैटिन भाषा में सन् 1743 ईस्वी में यह पुस्तक प्रकाशित हुई। इस प्रकाशित पुस्तक की एक प्रति कोलकता की नेशनल लाईब्रेरी में उपलब्ध है। इस व्याकरण का विवरण सर्वप्रथम डॉ0 ग्रियर्सन ने प्रस्तुत किया.

बेंजामिन शूल्ज़ - डेनिश भाषी डॉ0 शूल्ज़ प्रोटेस्टेन्ट मिशनरी थे। ये पहले तमिलनाडु में कार्यरत थे, बाद में हैदराबाद आ गए। आपकी मृत्यु सन् 1760 ई0 में जर्मनी के हाले नगर में हुई। कार्य करते हुए इनको दायित्व-बोध हुआ कि भारत में आने वाले मिशनरियों को हिन्दुस्तानी भाषा से अवगत कराना चाहिए। हिन्दुस्तानी भाषा के सम्बन्ध में लेखक ने अपनी भूमिका में लिखा - यह भाषा अपने आप में बहुत ही सरल है। मैं जब यह भाषा सीखने लगा तो मुझे अत्यधिक कठिनाई का अनुभव हुआ, लेकिन इस भाषा को सीखने की तीव्र इच्छा के कारण लगातार दो महीने के परिश्रम के फलस्वरूप सारी कठिनाई जाती रही। आरम्भ में ही मैंने इस भाषा के ज्ञान की आवश्यक बातों, विशेष रूप से शब्द-क्रम को लिख लिया था। धीरे-धीरे एक व्याकरण की सामग्री एकत्र हो गयी। बाद में इसे क्रमानुसार सजाकर पुस्तक का रूप दिया गया। शूल्ज़ ने अपना व्याकरण लैटिन भाषा में लिखा। भूमिका की तिथि 30 जून सन् 1741 ई0 है। प्रकाशन तिथि 30 जनवरी 1745 ई0 है।

इस व्याकरण में कुल छह अध्याय हैं। अध्याय एक में वर्णमाला से सम्बन्धित विचार हैं। इसी अध्याय में लेखक ने हिन्दुस्तानी भाषा के सम्बन्ध में तमिल भाषियों की इस मान्यता का प्रतिपादन किया है कि हिन्दुस्तानी भाषा या देवनागरम सारी भाषाओं की माता है। अध्याय दो में संज्ञा एवं विशेषण, अध्याय तीन में सर्वनाम, अध्याय चार में क्रिया, अध्याय पांच में अव्यय (परसर्ग, क्रिया विशेषण, समुच्चय बोधक, विस्मयादि बोधक) तथा अध्याय छह में वाक्य रचना का विवेचन है। परिशिष्ट में प्रेरितों के विश्वास की प्रार्थना, खावंद की बंदगी, बपतिसमा, खावंद की रात की हाजिरी, दस नियम, हे पिता प्रार्थना का विश्लेषण आदि हिन्दुस्तानी भाषा में दिए गए हैं जिस पर हैदराबाद में उस समय बोली जाने वाली दक्खिनी हिन्दी का प्रभाव परिलक्षित है। शब्दों को रोमन लिपि एवं फारसी लिपि में दिया गया है।

कैसियानो बेलिगत्ती- आप कैथलिक कैपूचिन मिशनरी इटली के मचेराता नगर के रहने वाले थे। आरम्भ में इन्होंने तिब्बत में कार्य किया था। बाद में नेपाल होकर बिहार के बेतिया नगर में आ बसे। इन्होंने पटना में भी धर्म प्रचार का कार्य किया। पटना में रहकर इन्होंने ‘‘अल्फाबेतुम ब्रम्हानिकुम' का लैटिन भाषा में प्रणयन किया। इसका प्रकाशन सन् 1771 ई0 में हुआ। इसकी विशेषता यह है कि इसमें नागरी के अक्षर एवं शब्द सुन्दर टाइपों में मुद्रित हैं। ग्रियर्सन के अनुसार यह हिन्दी वर्णमाला सम्बन्धी श्रेष्ठ रचना है.

जॉर्ज हेडले - ग्रैमेटिकल रिमार्क्स ऑन द प्रैक्टिकल एण्ड वल्गर डाइलेक्ट ऑफ द हिन्दोस्तान लैंग्वेज. यह रचना लन्दन से सन् 1773 में प्रकाशित हुई। डॉ0 ग्रियर्सन ने जार्ज हेडले के इस व्याकरण से हिन्दी व्याकरण परम्परा में एक नवीन युग का आरम्भ माना है। इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। लखनऊ के मिर्जा मुहम्मद फितरत ने इसमें परिवर्धन एवं संशोधन किया। सन् 1801 ई0 में लन्दन से इसका परिवर्धित एवं संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ। इस संस्करण के भी कई अन्य संस्करण बाद के वर्षों में प्रकाशित हुए.

जॉन बार्थविक गिलक्राइस्ट - इंग्लिश-हिन्दुस्तानी डिक्शनरी, कलकत्ता (1787) तथा हिन्दुस्तानी ग्रामर (1796). गिलक्राइस्ट का महत्व इस दृष्टि से बहुत अधिक है कि शिक्षा माध्यम के रूप में इन्होंने हिन्दी का महत्व पहचाना। माक्विस बेलेज़ली ने अपने गर्वनर जनरल के कार्यकाल (1798-1805) में अंग्रेज प्रशासकों तथा कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने तथा उन्हें भारतीय भाषाओं से परिचित कराने के लिए कलकत्ता में 4 मई सन् 1800 ई0 को फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। सन् 1800 में कालेज के हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष के रूप में गिलक्राइस्ट को नियुक्त किया गया। आप ईस्ट इंडिया कम्पनी में सहायक सर्जन नियुक्त होकर आए थे। उत्तरी भारत के कई स्थानों में रहकर इन्होंने भारतीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। सन् 1800 ई0 में ही गिलक्राइस्ट के सहायक के रूप में लल्लू लाल की नियुक्ति सर्टिफिकेट मुंशी के पद पर हुई। गिलक्राइस्ट ने हिन्दी में पाठ्य पुस्तकें तैयार कराने की दिशा में प्रयास किया। गिलक्राइस्ट ने भारत में बहुप्रयुक्त भाषा रूप को ‘खड़ी बोली' की संज्ञा से अभिहित किया। ‘खड़ी बोली' को अपने भारत की खालिस या खरी बोली माना है।

हेरासिम स्तेपनोविच लेबिदोव -जैसा कि इनके नाम से स्पष्ट है कि ये रूसी भाषी थे। आप सन् 1785 से सन् 1800 ई0 की अवधि में भारत में रहे। भारत में रहकर इन्होंने हिन्दी सीखी तथा हिन्दी का व्याकरण तैयार किया। इनका व्याकरण अपेक्षाकृत अधिक प्रमाणिक है। सन् 1801 ई0 में इन्होंने यह व्याकरण अपने व्यय से लन्दन में प्रकाशित कराया। व्याकरण ग्रन्थ का नाम है - ‘ग्रामर ऑफ द प्योर एण्ड मिक्स्ड ईस्ट इंडियन डाइलेक्ट्स'।

कैप्टन जोसेफ टेलर -इन्होंने ‘हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी' कोश अपने स्वाध्याय के लिए निर्मित किया था। कोश अत्यंत उपयोगी था। फोर्ट विलियम कॉलेज के अध्यापकों ने इसका संशोधन किया। इसका प्रकाशन सन् 1808 में डब्ल्यू हंटर द्वारा कराया गया।

विलियम हंटर- हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी डिक्शनरी, कलकत्ता (1808) (जोसेफ टेलर द्वारा स्वाध्याय के लिए निर्मित शब्दकोश का सम्पादन) एवं ए कलेक्शन ऑफ प्रोवर्ब्स- परशियन एण्ड हिन्दुस्तानी आपका योगदान है.

जॉन शेक्सपियर - विलियम हंटर के कोश का आपने सन् 1808 में संशोधन किया। इसका चतुर्थ संस्करण सन् 1849 ई0 में प्रकाशित हुआ जिसमें ‘हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी' के बाद ‘अंग्रेजी-हिन्दुस्तानी कोश' भी जोड़ दिया गया. इसी तरह ए ग्रामर ऑफ द हिन्दुस्तानी लैंग्वेज (1813) - इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। इसी तरह इन्ट्रोडक्शन टु द हिन्दुस्तानी लैंग्वेज (1845) का भी अलग महत्त्व है.

फ्रांसिस ग्लैडविन - इनकी मृत्यु सन् 1813 ई0 में हुई। इसके पूर्व इनका फारसी-हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी कोश सन् 1805 ई0 में प्रकाशित हुआ। लेखक को यह कृति प्राप्त नहीं हो सकी।

टामस रोएबक - एन इंगलिश एण्ड हिन्दुस्तानी नेवल डिक्शनरी ऑफ टेक्निकल ट्रम्स एण्ड सी फरेज़िज, कलकत्ता (1811) यह छोटी सी रचना है। इसका महत्व ऐतिहासिक है। इससे हिन्दी के आधुनिक पारिभाषिक कोशों की परम्परा का आरम्भ माना जा सकता है। इसी प्रकार आपने होरिस हेमैन विलसन के साथ मिलकर विलियम हंटर (दे0 क्रम सं0 9) की अपूर्ण कृति को पूर्ण किया। आपकी मृत्यु सन् 1819 ई0 में हो गई थी। आपकी मृत्यु के बाद सी0 स्मिथ ने इसे कलकत्ता से सन् 1824 ई0 में प्रकाशित कराया।

पादरी मैथ्यू थामसन एडम - ए ग्रामर ऑफ हिन्दी लैंग्वेज (हिन्दी भाषा का व्याकरण) (1827). श्री कामता प्रसाद गुरू ने हिन्दी की सर्वमान्य पुस्तकों में इसे प्रथम स्थान दिया है। हिन्दी कोश संग्रह किया हुआ पादरी एडम साहब का, कलकत्ता (1829). डॉ0 श्याम सुन्दर दास ने इसे देवनागरी अक्षरों में आधुनिक पद्यति का वर्णक्रमानुसार संयोजित पहला एक भाषीय हिन्दी कोश माना है।

गार्सां द तासी- फ्रांसीसी लेखक गार्सां द तासी की प्रतिभा बहुआयामी थी। हिन्दी साहित्य के इतिहास की जानकारी रखने वाले हिन्दी साहित्य के विद्वान इस तथ्य से परिचित हैं कि आधुनिक दृष्टि से हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने की परम्परा का सूत्रपात आपके द्वारा फ्रेंच भाषा में लिखित ‘इस्तवार द ला लित्रेत्यूर ऐंदुई -ए- ऐंदूस्तानी'(हिन्दुई तथा हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास) के प्रकाशन से होता है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन पैरिस से सन् 1839 ई0 में हुआ। इसका परिवर्धित एवं संशोधित संस्करण सन् 1870 ई0 में प्रकाशित हुआ। आपने हिन्दी भाषा सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की भी रचना की।

डॉ0 एल0पी0 टेसीटॅरी - इतालवी भाषी डॉ0 टेसीटॅरी हिन्दी के प्रथम शोधकर्ता हैं जिन्हें शोधकार्य के लिए किसी विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ फिलासफी की उपाधि प्राप्त हुई। आप तुलसीदास एवं उनकी प्रमुख रचना ‘रामचरितमानस' के अनुसंधानकर्ता हैं। आपने अपने शोध में रामचरितमानस की कथावस्तु की तुलना बाल्मीकि कृत ‘रामायण' की कथावस्तु से की है। ‘इल रामचरितमानस ए इल रामायण' शीर्षक आपका शोध लेख इतालवी पत्रिका ‘ज्योर्नेल डेला सोसाइटा एशियाटिका इटालियाना' में सन् 1911 ई0 में प्रकाशित हुआ। इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘इंडियन ऐन्टिक्वेरी' में सन् 1912 से सन् 1913 ई0 में प्रकाशित हुआ।

ऐसे और भी विद्वान हैं जिन्होंने अपनी मूल भाषा अथवा जन्म स्थान की सीमाओं में न बंधकर हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार और उसमें सृजन कर्म को भी महत्त्व दिया. हिन्दी के विकास का इतिहास इन विदेशी हिन्दी शोधकर्ताओं और विद्वानों के योगदान को भुला नहीं सकता.

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1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (09-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!