Monday, October 18, 2010

जीवन...!


ढोल बजाकर जगा रहे हैं
तिकड़ी अपनी बना रहे हैं।

रंग बहुत हैं
ढंग बहुत हैं
चुनूँ कहाँ से
कैसे जानूँ
कौन साँच है
कौन है झूठा
खिचड़ी अपनी पका रहे हैं।
कुछ असली हैं
नकली ज़्यादा
बनते फ़र्ज़ी
वैसे प्यादा
कपट सूत बुनने-गुनने को
कुटिल चाल पैनी तकली को
रिक्त व्योम में घुमा रहे हैं
हाथ में फूल
बगल में गढ़सा
चोर भुम्मि में
पाप है लड़सा
हँसकर मुझको बुला रहे हैं
बड़े भवन हैं
चौड़े पथ हैं
भूखे टूटों की आँच भभकती
आँखों में इस्पात झलकती
लोहा-लंगड़ गला रहे हैं
खिली धूप में झाड़ कटीले
धौरों पर खढ़िहार हठीले
न हो साथ
न हो कोई

लोय घनी अन्दर जलती है
जीवन अपना धका रहे हैं।
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श्री विजेंद्र की कविता 'बोधि प्रकाशन' से प्रकाशित कवि के
संग्रह 'भीगे डैनों वाला गरुण' से साभार प्रस्तुत.

1 comment:

शरद कोकास said...

बहुत बढ़िया कविता है । आज विजेन्द्र जी की एक पुरानी चिठ्ठी पढ़ रहा था , और उनकी कविता भी पढ़ ली । धन्यवाद ।