Wednesday, September 8, 2010

अगर कहीं बादल ने अपनी....!

अगर कहीं बादल ने अपनी जल वर्षा की कीमत माँगी
हरी चुनरिया इस धरती की श्याम चुनरिया हो जायेगी

हो सकता है प्यास-प्यास ने पूरी प्यास दिखाई न हो
शुष्क नदी ने कथा व्यथा की भर-भर आँख सुनाई न हो

हो सकता है सागर ने भी कम पानी के मेघ रचे हों
लौटे बादल की छागल में पानी के कण शेष बचे हों
ऐसे में दोषी ठहराना बादल भर को सही नहीं है
बादल ने भी जल-वर्षा की कीमत मुख से कही नहीं है

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अशोक शर्मा की कविता 'देशबंधु' से साभार प्रस्तुत
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2 comments:

रंजना said...

सच्ची सुन्दर बात...मोहक रचना...

पढवाने के लिए बहुत बहुत आभार...

Unknown said...
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