Wednesday, September 29, 2010

उम्र का तज़ुर्बा नहीं, तज़ुर्बे की उम्र बढ़ाइए !

मित्रों,
एक अक्टूबर 'विश्व वृद्ध जन दिवस' है। इस अवसर पर कुछ भाव और विचार तरंगें मन में उठीं। सोचा कि आप सब से साझा कर लूँ। मेरा यह लेख आज ही दैनिक 'सबेरा संकेत' में प्रकाशित हुआ है।

ज़िन्दगी सचमुच एक पहेली है. जब आप युवा होते हैं तब जो कुछ आप देखते हैं, उस पर यकीन भी करना सीख जाते हैं, किन्तु जब बुढापा आता है, तब आप समझ पाते हैं कि पहले जो कुछ देखा और माना था, वह हवा में बने महल या पानी में खींची गयी लकीरों से अधिक और कुछ भी नहीं है. इसके अलावा एक दूसरा चित्र भी संभव है. वह यह कि युवावस्था से ही यदि बढ़ती उम्र के प्रति आप सजग रहें, तब महसूस होगा कि ज़िन्दगी हर मोड़ पर, हर परिवर्तन, हर चुनौती को उसके सही सन्दर्भ में जानने-समझने और देखने का अवसर सुलभ करवा रही है. आपके चेहरे पर आहिस्ता-आहिस्ता सलवटें तो उभरेंगी ज़रूर, परन्तु आपकी आत्मा की ताजगी हमेशा बनी रहेगी.

यहाँ फिर यह सवाल किया जा सकता है कि अगर जोश और जश्न की उम्र में, बढ़ती उम्र का ख्याल न रहा हो, तब ढलती उम्र के प्रहारों का सामना कैसे करें ? ठहरिये, इसका भी हल है कि आप मार्क ट्वेन के इन शब्दों को दिलोदिमाग में बिठा लें कि अगर आप चिंतित हैं कि आप बूढ़े हो गए हैं, केवल तब आप मुश्किल में पड़ेंगे, पर इसके विपरीत आप वृद्धावस्था के मानसिक भार से मुक्त रहते हैं तो उम्र की कोई भी ढलान आपमें थकान पैदा न कर सकेगी.

हमारे बहुतेरे बुज़ुर्ग, अक्सर अपने दौर, अपने ज़माने, बीते हुए दिन या बड़ी मशक्कत के बाद हासिल की गई किसी कामयाबी की कहानी सुनाते थकते नहीं हैं. उन्हें अक्सर अपने 'अनुभव' पर आत्म मुग्ध होकर ये कहते सुना जा सकता है कि " बेटे यह मत भूलो कि हमने धूप में केश सफ़ेद नहीं न किये हैं !" चलिए, मान भी लें कि बढ़ी उम्र के साथ अनुभव भी बढ़ता गया, जानकारी भी बढ़ती गई, भले-बुरे का भेद भी बेहतर समझ में आने लगा. पर क्या इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना उचित होगा कि उम्र के साथ चीजों को देखने का नज़रिया भी बदल गया ? उम्र बढ़ी तो परिपक्वता भी बढ़ गयी ? या फिर कुछ ज़्यादा बरस जी लेने से ज़िन्दगी में कुछ ज्यादा खुशियाँ जुड़ गईं ? अगर इस प्रश्नों का उत्तर 'हाँ' है तो कुछ कहने की ज़रुरत ही नहीं है. परन्तु ज़वाब 'नहीं' मिले तो तय मानिये कि उम्र के तज़ुर्बे और तज़ुर्बे की उम्र के बीच अभी बड़ा फासला है।

दरअसल हम बढ़ती उम्र को सम्मान का अनिवार्य अधिकार मान बैठे हैं. जब वह सम्मान न मिले तो शिकायत का सिलसिला शुरू होते देर नहीं लगती कि क्या करें आज की पीढ़ी तो कुछ सुनने या समझने को तैयार ही नहीं है, बुजुर्गों की किसी को कोई परवाह नहीं रह गई, सब अपने में मशगूल हैं वगैरह...वगैरह. परन्तु कभी ये भी तो सोचा जाए कि अब तक क्या जिया, समाज से कितना लिया और प्रतिदान में उसे कितना वापस लौटाया ? कितने मित्र बनाए, कितने अपनों को ( यदि सचमुच अपने हों ) खो दिया ?, कितनी ज़िंदगियों में मुस्कान बिखेरी, कितनों की हँसी छीन ली ? ये कुछ बातें हैं जो दर्पण में अपना अक्स ईमानदारी से देखने आहूत करती हैं कि आप उम्र बीतने और उम्र को जीतने के बीच अंतर की पड़ताल कर सकेंसंभव है कि समय से उभरे चोट के ऐसे निशान अब भी बाकी हों जो आपको बीती हुई बात को भुला देने से रोकते हों, आपके भीतर एक कभी ख़त्म न होने वाली दर्द भरी दास्तान, आपको हमेशा बेचैन बनाए रखती हो,फिर भी अब्राहम लिंकन के ये शब्द याद रखने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि बुढ़ापे में ये न देखा जाए कि जीवन में कितने बरस जुड़े, बल्कि देखना तो यह चाहिए कि आपने स्वयं उसमें कितने वर्ष जोड़े। यह भी कि उम्र के हर दौर में आपकी ज़िन्दगी आपके चेहरे से बयां हो जाती है. उस पर नाज़ करें न कि उसे झुठलाने की जुगत में आप सिर्फ दूसरों पर नाराज़ होते रहें।

एक और दृष्टिकोण यह भी तो हो सकता है कि आप उम्र खो देने के अफ़सोस से उबरने की हर संभव कोशिश करें और खुशियों के इंतज़ार को नई आरज़ू के उपहार में बदल कर दिखा दें. ऐसे लोग भी हुए हैं जो उम्र जैसी किसी तहकीकात को कभी पसंद नहीं करते. जैसे कि एलिजाबेथ आर्डन के ये शब्द कि "मुझे उम्र में कोई दिलचस्पी नहीं है. जो लोग मुझे अपनी उम्र बताते हैं उनकी नादानी पर मुझे तरस आता है. वास्तव में आप उतने ही बूढ़े हैं, जितने आप खुद को मान बैठे हैं ।"

कुछ बातें हैं जिन्हें बढ़ती उम्र के खाते से बाहर कर देना आसान नहीं है। उदाहरण के लिए शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक परिवर्तन के कारण आप अकेलापन अनुभव करते हों. परिवार का साथ छूट जाने या सहयोग न मिलने या फिर अपनी ही विरासत से हाथ धो बैठने की टीस आपके भीतर हमेशा के लिए घर कर गई हो. पर यदि गहराई में जाएँ तो लगेगा कि जो चीजें आपके हाथ में नहीं हैं, जिन्हें आप न तो बदल सकते हैं, न ही वापस हासिल कर सकते हैं, उनके लिए मन भारी रखना, हर पल 'काश !.... काश !! ऐसा होता' जैसे ख्यालों में डूबे रहना, कोई हल तो नहीं है.

अब वो दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या ये मुमकिन है आप कि आप उसमें अपनी मर्जी के रंग भर सकेंगे ? नहीं न ? तो क्या ये अधिक अच्छा नहीं होगा कि आप हताशा से बचें, बची हुई साँसों को जियें। अपनी सेहत को, उम्र के शेष वर्षों को पूरे धीरज के साथ किसी की अमानत मानकर सहेजकर रखें ?

माना कि उम्र की एक ख़ास दहलीज़ पर समाज में सक्रिय सहभागिता न होने या मानसिक रूप से बदलती परिस्थितियों से ताल-मेल न बिठा पाने के कारण या फिर काम-काज की ज़िन्दगी पर विराम लग जाने की वज़ह से या फिर अपनों के बेगाने-से व्यवहार या उनकी रोजमर्रे की दुत्कार के चलते आप नकारात्मक भावों से ग्रस्त हों, लेकिन यह भी याद रखना अच्छा होगा कि पूरी दुनिया भी अगर ठुकरा दे या दुश्मन बन जाए तब भी यही उम्र परमात्मा से मित्रता करने का, एकाकीपन को भरने का स्वर्णिम काल होता है. यह आपकी आस्था और नज़रिए पर निर्भर है कि आप दुष्कर को सुखकर बना लें. बुढ़ापे को जीना भी एक बड़ी रणनीति की अपेक्षा करता है।

एक समय था कि बच्चे जीवन भर बड़ों के साथ रहते थे. अब वह धारा बदल चुकी है. पहले तीन पीढ़ियाँ एक छत के नीचे रहती थीं. अब 'न्यूक्लियर फेमिली' का ज़माना है. पति-पत्नी दोनों काम पर जा रहे हैं. बच्चे स्कूल में पढ़ते और रहते भी हैं. बड़े-बुजुर्ग, घर पर केवल इंतज़ार में दिन काट रहे हों तो आश्चर्य क्या है ? पहले जीवन धान और धर्म का था, हम और हमारा की भावना सर्वोपरि थी. अब मैं और मेरा का बोलबाला है. समझने की बात ये है कि ऐसे हालात के बीच या इससे अलग और भी परिस्थियाँ हो सकती हैं आप महसूस कर रहे हों कि "तमाम उम्र मैं एक अजनबी के घर में रहा, सफ़र न होते हुए भी किसी सफ़र में रहा"... फिर भी सफ़र तो जारी रहेगा ही. ये सफ़र भी सुहाना हो सकता है...बशर्ते कि आप मानें बुढापा कोई बीमारी नहीं बल्कि एक नया अवसर है।

अंत में बस इतना ही कि -

किसी की चार दिन की ज़िन्दगी में सौ काम होते हैं,
किसी का सौ बरस का जीना भी बेकार होता है।
किसी के एक आँसू पर हजारों दिल तड़पते हैं,
किसी का उम्र भर का रोना भी बेकार होता है।।

Wednesday, September 22, 2010

प्रेरक मुक्तक.

मानस के राजहंस डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र जी
हिंदी की वह विरल विभूति हैं जिनकी वाणी
ग्राम्य-कुटीर से लेकर राष्ट्रपति भवन तक गूंजी
उन्हें सन 1939 में, हिंदी में लिखित
शोध प्रबंध 'तुलसी दर्शन' पर
डी.लिट की उपाधि से अलंकृत किया गया था।
बहरहाल....पढ़िए आचार्य प्रवर के चंद प्रेरक मुक्तक...

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एक
माना कि विषमताएँ दुनिया को घेरे हैं
उस घेरे को भी घेर धैर्य से बढ़े चलो
उल्लास भरा है तो मंज़िल तय ही होगी
मंज़िल को भी सोपान बनाकर बढ़े चलो

दो
निश्चय समझो जो कभी तुम्हारा बाधक था
वह देख तुम्हारा तेज स्वयं साधक होगा
तुम अपने आदर्शों के आराधक हो लो
पथ स्वयं तुम्हारे पथ का आराधक होगा

तीन
किसको न बुढ़ापा आता है इस जीवन में
पर वह क्या, जिसकी यौवन में झुक जाये कमर ?
जो होना है वह होगा, तब होगा लेकिन
पहले ही ध्वस्त हुए क्यों अनहोने भय पर ?


चार
अकबर महान हो यदि अपने ऐश्वर्यों में
शंकराचार्य ने यदि दिमाग आला पाया
तो मैं भी तो हूँ शहंशाह अपने दिल का
मैं क्यों मानूँ मैं छोटा ही बनकर आया ?

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Saturday, September 18, 2010

मेरी लड़की

मेरी लड़की
बरसात का चित्र निकाल रही है

चित्रों में रंग भरते हुए वो मुझसे पूछती है
बाबा, बारिश को कौन सा रंग दूं ?
मैं क्या बताऊँ
उसे बारिश का कौन सा रंग बताऊँ ?
अंकुर पैदा होने वाली मिट्टी की खातिर
बारिश का रंग हरा होता है बताऊँ,

कि एक छतरी में चलने वाले उन दोनों के लिए
बारिश का रंग गुलाबी होता है, ऐसा बताऊँ ?

खेतों में नाचने वाले धान के दानों की खातिर
बारिश का रंग सफेद होता है, ऐसा बताऊँ,

कि उड़ चुके छप्पर वाली झोपड़ी के चूल्हे की खातिर
बारिश का रंग काला होता है, ऐसा बताऊँ,

कि युद्ध में शहीद हो चुकी विधवा की खातिर
बारिश का रंग लाल होता है, ऐसा बताऊँ ?

आप ही बताइए मैं क्या बताऊँ
उसे बारिश का कौन सा रंग बताऊँ ?
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श्री प्रशांत असनारे की मूल मराठी कविता
अनुवाद किया है - श्री राजेश गनोदवाले ने।
नवभारत, रविवार 19 सितम्बर 2010 से साभार प्रस्तुत।
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Sunday, September 12, 2010

बात मत कर.....!

मुर्दा घरों में कहकहों की बात मत कर
मूक बज्मों में ग़ज़ल की बात मत कर
अरसे के बाद जिनके लिए निकलता है सूरज
उन सियाह तकदीरों की सुबह को रात मत कर
जो शहर में बमुश्किल दिखाई दिया करते हैं
ऐसे लोगों से सरे राह मुलाक़ात मत कर
जिन्होंने एक भी वादा निभा कर न दिखाया हो
उन छतों पर आग्रहों की बरसात मत कर
ये समझ तू कातिलों की महफ़िल में है
ऐसी जगह बंदीगृहों की बात मत कर
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सुदर्शन शंगारी की ग़ज़ल साभार प्रस्तुत

Wednesday, September 8, 2010

अगर कहीं बादल ने अपनी....!

अगर कहीं बादल ने अपनी जल वर्षा की कीमत माँगी
हरी चुनरिया इस धरती की श्याम चुनरिया हो जायेगी

हो सकता है प्यास-प्यास ने पूरी प्यास दिखाई न हो
शुष्क नदी ने कथा व्यथा की भर-भर आँख सुनाई न हो

हो सकता है सागर ने भी कम पानी के मेघ रचे हों
लौटे बादल की छागल में पानी के कण शेष बचे हों
ऐसे में दोषी ठहराना बादल भर को सही नहीं है
बादल ने भी जल-वर्षा की कीमत मुख से कही नहीं है

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अशोक शर्मा की कविता 'देशबंधु' से साभार प्रस्तुत
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Thursday, September 2, 2010

वे सुन नहीं सकते....!

वे सुन नहीं सकते
हालांकि वे सुनना चाहते हैं
पेड़ों और हवाओं के गीत
दरियाओं का संगीत
आबी परिंदों की आवाजें
शहंशाह आलम की कविताएँ
कोशिश करें तो
वे भी सुन सकते हैं
सुनने की सारी चीजे हैं
इसलिए वे शहर बहरे नहीं हैं
हमीं ने उन्हें
बहरा किया हुआ है अनंत काल से !
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शहंशाह आलम की रचना।
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